देर से उठाया गया दुरुस्त कदम
[ जयजित भट्टाचार्य ]: सोमवार को भारत सरकार ने 59 चीनी मोबाइल एप्स पर प्रतिबंध लगा दिया। इस प्रतिबंध के पीछे डाटा सुरक्षा और निजता जैसे पहलुओं को वजह बताया जा रहा है, मगर यह मसला तो गूगल, फेसबुक और ट्विटर के साथ भी है। फिर उन्हेंं क्यों बख्श दिया गया? स्पष्ट है यह कवायद केवल डाटा सुरक्षा और निजता को ध्यान में रखकर ही नहीं की गई। यह आवरण केवल कुछ अंतराराष्ट्रीय परंपराओं का सम्मान करने के लिहाज से डाला गया है। इसका मकसद तो चीन को सख्त संदेश देना है।
एप्स पर प्रतिबंध: चीन की बिलबिलाहट से साफ है कि मोदी का निशाना एकदम सटीक जगह लगा
वास्तव में चीनी एप तो हमेशा से सरकार के निशाने पर रहे, लेकिन सीमा पर चीन के साथ हालिया तनाव के बाद सरकार ने आखिरकार ट्रिगर दबा ही दिया। चूंकि चीन अब प्रमुख रूप से एक व्यापारिक देश है और भारत उसके उत्पादों का एक अहम बाजार तो अपने एप्स पर प्रतिबंध के फैसले को लेकर चीन की बिलबिलाहट से साफ है कि सरकार का निशाना एकदम सटीक जगह लगा है।
चीन पर दोहरी चोट
वास्तव में यह चीन के लिए दोहरी चोट है। भारत के इस कदम से जहां चीन की दिग्गज टेक कंपनियों की वैश्विक महत्वाकांक्षाओं को तगड़ा झटका लगेगा वहीं तमाम दूसरे देश भी भारत की तर्ज पर चीनी कंपनियों से पीछा छुड़ा सकते हैं। अमेरिका द्वारा मंगलवार को हुआवे और जेटीई जैसी चीनी कंपनियों को राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा बताना इसी रुझान की पुष्टि करता है।
चीन का रवैया हमेशा से संदिग्ध रहा
मोदी सरकार का यह कदम बिल्कुल सही है। वास्तव में यह तो काफी पहले ही हो जाना चाहिए था। हम कम से कम बीते एक दशक से इसकी दुहाई देते आए हैं कि सरकार को देश के व्यापक हितों में विदेशी तकनीकी पर निर्भरता कम करनी चाहिए। यदि वह तकनीक चीन जैसे देश की हो तो हमें और सतर्क रहने की जरूरत है। चीन का रवैया हमेशा से संदिग्ध रहा है। अतीत में मंगोलिया से लेकर तिब्बत और शिनजियांग तक उसका अतिक्रमण और वर्तमान में भी तमाम देशों के साथ तकरार उसकी विस्तारवादी बदनीयती को ही जाहिर करता है।
दुनिया की सबसे बड़ी ताकत बनने के लालच में चीन अनुचित नीतियों का सहारा ले रहा
दुनिया की सबसे बड़ी ताकत बनने के लालच में वह अनुचित नीतियों का सहारा ले रहा है। इसमें नई तकनीक और एप्स उसके हथियार बनते दिख रहे हैं। बीते दिनों ऑस्ट्रेलिया पर हुआ साइबर हमला इसकी मिसाल है। यह हमला प्रायोगिक तौर पर किया गया ताकि चीन अपनी क्षमताओं को भांप सके कि कैसे वह एक गोली दागे बिना अपने प्रतिद्वंद्वी देश को घुटनों के बल पर ला सके। चीन ने इसमें महारत हासिल कर ली है और वह अपनी इन क्षमताओं को लगातार धार भी देता जा रहा है।
भविष्य की लड़ाइयां तकनीकी मोर्चे पर लड़ी जाएंगी
तमाम सामरिक विश्लेषकों का मानना है कि भविष्य की लड़ाइयां तकनीकी मोर्चे पर लड़ी जाएंगी। कोई देश अपने दुश्मन देश की बिजली व्यवस्था को छिन्न-भिन्न कर उसे लचर बना सकता है। दुश्मन देश के लड़ाकू विमानों की उड़ान को ही प्रभावित कर सकता है। सैन्य रसद को पहुंचाने में गतिरोध उत्पन्न कर सकता है। तब बड़ी से बड़ी सेना भी उपयोगी नहीं हो सकती। इसे संभव बनाने में निजी जानकारियां बहुत उपयोगी होती हैं जिन्हेंं एप के जरिये चुराया जा सकता है।
ईरान में तो परमाणु ठिकाने पर तकनीकी दक्षता से तोड़फोड़ तक करा दी गई
यह सही है कि सेना और अन्य संवेदनशील विभागों में तमाम एप्स प्रतिबंधित हैं, लेकिन उनके मित्र और स्वजन तो उन्हेंं इस्तेमाल कर सकते हैं। इसमें सेंधमारी कहीं से भी हो सकती है। सूचनाएं जुटाकर किसी को लुभाकर या मजबूर कर राष्ट्रीय हितों को क्षति पहुंचाई जा सकती है। यह एक तरह से मिनी हनीट्रैप जैसा ही मामला है। बीते दिनों बांग्लादेश में एक बैंक से बड़ी रकम इसी तरह निकाली गई, जिसके बारे में अभी तक कोई सुराग नहीं मिला है। ईरान में तो परमाणु ठिकाने पर तकनीकी दक्षता से तोड़फोड़ तक करा दी गई।
संवेदनशील सूचनाएं जुटाने के मामले में एप भेदिये का काम करता है
संवेदनशील सूचनाएं जुटाने के मामले में एप किसी भेदिये का काम करते हैं। पुराने जमाने में किले बहुत मजबूत बनाए जाते थे, लेकिन कोई न कोई भेदिया उन किलों को भी ध्वस्त करा देता था। ये एप भी कुछ ऐसे ही हैं। ऐसे में हमें अपना सुरक्षा घेरा और सशक्त बनाना होगा जिसमें सबसे पहला कदम तो इनसे छुटकारा पाना ही है। फिर हमें अपना मोर्चा मजबूत बनाना है। याद रखें कि इस दौर में तकनीकी संप्रभुता भी भौगोलिक एवं राजनीतिक संप्रभुता जितनी ही महत्वपूर्ण है। हमें इस मामले में कोई ढिलाई नहीं करनी होगी।
खोजडॉटकॉम गूगल के संसाधनों के सामने फुस्स हो गया
भारत सरकार ने भले ही 59 चीनी एप्स प्रतिबंधित कर दिए हों, लेकिन यदि एपल स्टोर और गूगल एंड्रॉयड प्ले स्टोर इन्हेंं अपने प्लेटफॉर्म से हटाने को राजी नहीं होते तब सरकार क्या करती? ऐसे में तकनीकी रूप से संप्रभु कौन होता? एपल और गूगल जैसी कंपनियां या भारत सरकार? हमें यह स्थिति बदलनी होगी। इसके लिए सरकारी प्रोत्साहन आवश्यक ही नहीं, बल्कि अनिवार्य होगा। हमने काफी पहले ही कुछ पहल की थीं, लेकिन सरकारी सहयोग के अभाव में वे फलीभूत नहीं हो पाईं। जैसे गूगल का मुकाबला करने के लिए 2007 में हमने खोजडॉटकॉम जैसा दांव चला जो गूगल के संसाधनों के सामने फुस्स हो गया। यह उस समय की बात है जब चीन में गूगल के विकल्प बायडू का अंकुर भी नहीं फूटा था। इस दौरान चीन कहां से कहां पहुंच गया।
वॉट्सएप पर दंगों से लेकर हिंसक भीड़ के हमले और चुनावों को प्रभावित करने तक के आरोप लगे
एप्स से जुड़े जोखिमों को देखते हुए कुछ समय पहले वॉट्सएप जैसे मैसेजिंग एप को लेकर भी सवाल उठे थे। सरकार की सख्ती के बाद उसने कुछ बदलाव कर सहयोग किया है, फिर भी हमें एहतियात बरतने की जरूरत है, क्योंकि वॉट्सएप पर दंगों से लेकर हिंसक भीड़ के हमले और चुनावों को प्रभावित करने तक के आरोप लगे हैं। चूंकि वह अमेरिकी कंपनी फेसबुक का एप है तो उसके लिए हमारा नजरिया अलग है। इसका कारण यह है कि अमेरिका से हमें कोई खतरा नहीं दिखता, जबकि चीन समय-समय पर हमारे लिए चुनौती पेश करता आया है।
चीन को जवाब देने के लिए सरकार ने उसके संदिग्ध एप्स पर किया प्रहार
चीन को जवाब देने के लिए सरकार ने उसके संदिग्ध एप्स पर जो प्रहार किया है उसका लाभ तभी मिल पाएगा जब वह उनके विकल्प तैयार करने के लिए देसी उद्यमियों और इनोवेटर्स को प्रोत्साहन देकर एक आदर्श परिवेश तैयार करे। इस सिलसिले में शेयर चैट, चिंगारी, जोहो मीटिंग, एयरमीट और जुप-पीओएस जैसे तमाम नाम सामने आए हैं। यदि इन्हेंं सरकार और यूजर्स का समर्थन मिले तो ये न केवल देश, बल्कि वैश्विक स्तर पर भी सफलता के झंडे गाड़ सकते हैं।
( लेखक सेंटर फॉर डिजिटल इकोनॉमी पॉलिसी रिसर्च के प्रेसिडेंट हैं )
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